१० मार्च, १९७३

 

पता नहीं, जब कभी मै इस नयी चेतनाके संपर्कमें आनेकी कोशिश करता हूं तो मुझे हमेशा ऐसा लगता हां, जैसा आप कहती हैं कि एक ज्योतिर्मय बिस्तार है ।

 

हां

 

   लेकिन मुझे लगता है कि वह हिलता-डुलता नहीं । हम वहां हैं और अनंत कालतक रह सकते हैं । लेकिन...

   

ऐसा ही है, मुझे यह) लगता है ।

 

   क्या इतना काफी है कि 'वह' हमारे अंदर भरता जाय, और कुछ करनेकी जरूरत नहीं?

 

मेरा ख्याल है, मेरा व्याल है कि यही एकमात्र चीज है । मैं हमेशा दोहराती रहती हूं - ''जैसा 'तुम' चाहो, जैसा 'तुम' चाहो, जैसा 'तुम' चाहो... । जैसा 'तुम' चाहो वैसा ही हो, मैं वही करूं जो 'तुम' चाहो । 'तुम' जो कुछ चाहो, मै उसके बारेमें सचेतन होऊं ।

 

  और यह भी : 'तुम्हारे' बिना मृत्यु है; 'तुम्हारे' साथ जीवन । ''मृत्यु''- से मेरा मतलब भौतिक मृत्यु नहीं है - यह हो सकता है; हों सकता है कि अब अगर मैं संपर्क खो दूं तो अंत आ जाय, पर यह असंभव है! मुझे लगता है कि यह... कि मैं वह हूं -- वर्तमान चेतनामें अभीतक चाहे जितनी भी बाधाएं हों, उन सबके साथ सबके होते हुए मैं वह हूं । और बस । और तब, जब मैं किसीको देखती हूं... (माताजी हाथ खोलती हैं मानों उस व्यक्तिको 'ज्योति' के अर्पण कर रही हैं), वह चाहे कोई क्यों न हों : इस तरह (वही मुद्रा) ।

 

 ( मौन)

 

 सारे समय (यह मजेदार है), सारे समय मुझे लगता है कि मै एक छोटी-सी बच्ची हूं जो दुबकी हुई है - अंदर दुबकी हुई है... (कैसे कहा जाय?)... सर्वग्राही दिव्य चेतनामें दुबकी हुई है ।